
सादगी का वो दौर: 60 का भारत
धीमी चाल पे चलती थी जब जीवन की ये डगर,
साठ का दशक था, हर दिल में था सुकून का असर।
संयुक्त परिवारों में गूँजती थी हँसी की किलकार,
दादा-दादी की कहानियाँ, था बच्चों का संसार।
त्योहारों की रौनक, गली-मोहल्लों में थी छाँव,
मिल-जुलकर मनाते थे, हर गाँव और हर ठाँव।
पड़ोसियों का साथ, था अटूट एक बंधन,
खुले आँगन में होती थी, हर शाम गपशप-चिंतन।
रेडियो की आवाज़, थी मनोरंजन का सरताज,
समाचार, गीत-संगीत, बनते थे सबके हमराज़।
सिनेमा हॉल की भीड़, फ़िल्में थीं बड़ा इवेंट,
राजेश खन्ना, देव आनंद, थे दिल में परमानेंट।
गली-कूचों में खेलते थे, कंचे और गिल्ली-डंडा,
पतंगों की उड़ान, आसमान में था उनका झंडा।
आम के पेड़ों पे चढ़ना, अमरूद तोड़ने का मज़ा,
नंगे पाँव घूमना, यही थी बच्चों की रज़ा।
बारिश में कागज़ की नाव, मिट्टी की वो खुशबू,
प्रकृति से जुड़ाव, था जीवन का जादू।
सादगी में था संतोष, ना भौतिकता की होड़,
छोटी-छोटी खुशियों में, मिलती थी बड़ी-बड़ी जोड़।
ताज़े मसाले, घी-मक्खन, था भोजन का सार,
नियमित दिनचर्या, अनुशासन, हर दिन का आधार।
धैर्य था लोगों में, ना हड़बड़ी, ना कोई रार,
संबंधों को देते थे महत्व, अपनों का प्यार।
सांस्कृतिक मेलजोल, हर दिल में सद्भाव था,
शादी-ब्याह, उत्सवों में, खुशियों का बहाव था।
धीरे चलती थी दुनिया, पर रूह में थी जान,
मानव संबंध और समुदाय, थे सबसे महान।