
ईश्वर और प्रेम दोनों अलग-अलग नहीं है।
जैसे सूर्य और प्रकाश, जैसे जल और शितलता, जैसे अग्नि और उष्णता। ईश्वर और प्रेम का भी ऐसा ही हैं। ठिक ऐसे ही अनंत प्रेम, अनंत सुख, अनंत शांति, सत् चित् आनन्द, निरामयता, ईश्वर का स्वभाव है।
प्रेम के आगे ईश्वर झुक जाते हैं, इसका मतलब है कि, ईश्वर प्रेम को स्वीकार करते हैं। ईश्वर अनुभूति का सहज सरल मार्ग है प्रेम।
प्रेम परमात्मा है, ऐसा लोग कहते हैं क्योंकि वह परमात्मा का स्वभाव है।
प्रेम अलग है, आकर्षण अलग है और वासना अलग। लोग इन्ही को प्रेम समझते हैं। जो कि प्रेम पवित्र और सर्वत्र होता है।
प्रेम सबसे होता है, प्रेम मे भेदभाव नहीं होता। प्रेम एक स्वभाव है, प्रेम ईश्वरीय दिव्य गुण है। इसलिए प्रेम को हम ईश्वर की उपमा देते हैं।
प्रेम को ईश्वर का स्वरुप कहा गया है क्योंकि प्रेम ईश्वर जैसा सर्वव्यापक है। जरा अनुभव करना, जब हम सही मायने में प्रेम में, या प्रेममय होते हैं, तो देहभान विरहित होते हैं। ईश्वर जैसे शुन्य, सर्वव्यापक, सच्चिदानंद स्वरुप हो जातें हैं।
जब हम सही मायने में प्रेम में होते हैं, तो सच्चे आनंदित होते हैं। तब हमारे भीतर अनंत आनंद होता है।
इसलिए ईश्वर को प्रेम कहा है। क्योंकि वहां दूसरा कुछ भी नहीं, कोई मिलावट नहीं। बस केवल आनंद और सच्चिदानंद है।
प्रेम समझना ईश्वर को समझने जैसा है। जैसे ईश्वर को हम आम लोग नही समझ सकते ठीक वैसे ही प्रेम सब्जेक्ट भी आम लोगों का नहीं है।
मनुष्य को ईश्वरानुभूति के बाद ही उसके भीतर से सच्चा प्रेम प्रकट होता है, उसमे विवेक की उत्पत्ति होती है। प्रेम का और ईश्वर का निकट का संबंध है।