
इतिहास की किताबों में हमें युद्धों, संधियों और साम्राज्यों की कहानियां मिलती हैं। लेकिन एक और इतिहास है – आत्माओं का इतिहास, भक्ति और ज्ञान का इतिहास। यही इतिहास हमें मिलाता है चित्तौड़ की महारानी मीराबाई और काशी के महासंत गुरु रविदास से।
मीराबाई की भक्ति
बचपन से ही मीरा का संसार उनके प्रिय गिरधर गोपाल की मूर्ति में सिमट गया था। विवाह के बाद भी राजमहल के ऐश्वर्य और लोकलाज से दूर, वह केवल अपने कृष्ण में ही लीन रहीं। विष का प्याला, ताने-उपहास और कुल की मर्यादा की बेड़ियाँ – कुछ भी उनकी भक्ति को डिगा नहीं सका।
लेकिन भीतर कहीं एक अधूरापन था। उन्हें लगता था कि कृष्ण पास हैं, पर फिर भी कोई परदा है जो उन्हें पूर्ण मिलन से रोक रहा है।
गुरु की शरण
यही बेचैनी मीरा को काशी ले गई। राजसी ठाट-बाट छोड़कर जब वे गुरु रविदास की कुटिया पर पहुंचीं तो यह दृश्य स्वयं में एक क्रांति था – महारानी, एक संत चर्मकार के चरणों में झुकी हुई। उन्होंने आंसुओं भरी विनती की –
“गुरुदेव, मैंने सब त्याग दिया, फिर भी यह विरह क्यों है? यह अधूरापन क्यों है?”
गुरु रविदास का प्रश्न
गुरु ने उनसे प्रेमपूर्वक कहा –
“पुत्री, यदि तुम्हारे कृष्ण ही अंतिम सत्य हैं तो उनसे पूछो – क्या वही परम सत्य हैं या सत्य कुछ और है?”
मीरा ने कांपते मन से अपने कृष्ण से यह प्रश्न किया। और तभी एक दिव्य वाणी गूंजी –
“मीरा, तूने मुझे रूप में पाया है, स्वरूप में नहीं। मेरा सच्चा स्वरूप निराकार, अनंत और सर्वव्यापी है। उसका ज्ञान तुझे रविदास जी देंगे।”
आत्म साक्षात्कार
यह सुनकर मीरा का अहंकार मिट गया। वे फिर से गुरु रविदास के चरणों में लौटीं और पूर्ण समर्पण किया। गुरु ने उन्हें अद्वैत का ज्ञान दिया –
“आत्मा और परमात्मा अलग नहीं हैं। जैसे सूर्य और उसकी किरण, सागर और लहर – वैसे ही जीव और ब्रह्म एक ही हैं। यही है ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का बोध।”
मीरा का रूपांतरण
उस दिन के बाद मीरा की भक्ति परमानंद का उत्सव बन गई। उनके पदों में अब पीड़ा नहीं, बल्कि मिलन का उल्लास था। उन्होंने निर्भय होकर गाया –
“पायो जी मैंने राम रतन धन पायो…”
यह गाथा हमें क्या सिखाती है 🌸
सच्ची भक्ति अहंकार का विसर्जन है।
भगवान भक्त को अंततः गुरु की शरण में भेजते हैं।
सगुण (रूप) और निर्गुण (स्वरूप) – दोनों का संगम ही पूर्णता है।
सच्चा गुरु हमें हमारे भीतर के परमात्मा से मिलाता है।
🙏 यह कथा हमें याद दिलाती है कि सबसे बड़ी खोज बाहर नहीं, बल्कि अपने भीतर होती है।