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काशी नगरी की पवित्र धरती पर संत कबीर अपने करघे पर सूत कातते थे 🧵। वे न तो स्वयं को ज्ञानी मानते थे, न ही किसी ऊँचे आसन पर बैठते थे 🧘♂️। उनका जीवन सादगी, सेवा और सत्य से जुड़ा था 🌿।
दूसरी ओर, एक प्रसिद्ध संत थे — ज्ञानीदास 🙏। वे काशी में आए, लोगों ने उनका भव्य स्वागत किया 🎉। हाथी पर बैठाकर नगर भ्रमण कराया गया 🐘। यश, कीर्तन, सम्मान सब कुछ मिला… पर कबीर की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई 🤔।
आहत अहंकार ने प्रश्न उठाया — “क्या कबीर मुझे जानबूझकर अनदेखा कर रहा है?” 😡
उन्हें लगा कि शायद कबीर उनसे ईर्ष्या करता है 😠। क्रोधित हो वे कबीर की कुटिया पहुँचे 🛖। वहाँ न कोई द्वारपाल था, न कोई आडंबर ❌। बस एक बुनकर शांत भाव से सूत कात रहा था 🧶।
ज्ञानीदास बोले —
“तू ही है वो कबीर?” 😒
कबीर ने मुस्कुराकर सिर हिलाया — “हाँ, मैं कबीर हूँ।” 🙂
ज्ञानीदास ने व्यंग्य से कहा —
“तो तू वही है जिसे आत्मज्ञान हुआ है?” 😏
कबीर शांत रहे 🧘♂️…
“जिसे ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ है?” 😤
कबीर तब भी शांत रहे…
“जो कहता है कि तू ईश्वर को जानता है?” 😠
कबीर ने विनम्रता से उत्तर दिया —
“मुझे तो कुछ नहीं पता। मैं तो बस अपने काम में लीन हूँ।” 🤲
उनकी विनम्रता, मौन और सरलता ने ज्ञानीदास को भीतर तक हिला दिया 💓।
वहाँ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी ⚖️।
कोई अहंकार नहीं 🙅♂️।
केवल प्रेम था ❤️, शांति थी ☮️, सत्य था 🌟।
ज्ञानीदास की आँखों से आँसू बह निकले 😢। उन्होंने कबीर के चरणों में सिर झुका दिया 🙇♂️।
कबीर बोले —
“तुमने सत्य को पहचान लिया, अब तुम भी ज्ञानी हो, लेकिन अब बिना ‘दास’ के। बस ज्ञान हो, तो वही पर्याप्त है।” 🕊️
यह कहानी हमें सिखाती है:
ज्ञान का अर्थ केवल शास्त्रों का बोझ नहीं है 📚,
बल्कि विनम्रता 🙏, मौन 🤫, और स्व-अनुभव की गहराई है 🌊।
जहाँ अहंकार मौन से टकराता है ⚔️, वहाँ सत्य की विजय होती है ✨।
Jai sachidanand ji🙏