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संत मुक्ताबाई महाराष्ट्र की महान संत परंपरा की एक अद्वितीय कड़ी थीं। वे 13वीं शताब्दी के प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर की छोटी बहन थीं, और स्वयं भी एक उच्च कोटि की संत, योगिनी और कवियित्री थीं। उनकी रचनाओं में आध्यात्मिक गहराई, करुणा, समत्व और सहज ज्ञान की झलक मिलती है। उन्होंने बहुत ही कम उम्र में भक्ति और ज्ञान के शिखर को प्राप्त किया।
जीवन परिचय
मुक्ताबाई का जन्म 1279 ईस्वी के आस-पास महाराष्ट्र के आपेगाँव या आलंदी (वर्तमान पुणे जिले के निकट) में हुआ था। वे विट्ठल पंत और रुक्मिणी माता की चार संतानो में सबसे छोटी थीं। उनके तीन बड़े भाई – निवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर और सोपानदेव – सभी महान संत बने। इन चारों भाई-बहनों ने मिलकर महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को नई दिशा दी।
परिवार को समाज की कट्टरता और धार्मिक पाखंड के कारण बहुत कष्ट उठाने पड़े। उनके माता-पिता को संन्यास से लौटने पर बहिष्कृत कर दिया गया था, जिससे चारों संत-संतान समाज से तिरस्कृत जीवन जीने को विवश हुए। इस परिस्थिति में भी मुक्ताबाई ने कभी आशा नहीं छोड़ी और अपने काव्य एवं आध्यात्मिक चिंतन से लोगों को प्रेम, करूणा और आत्मज्ञान का मार्ग दिखाया।
साहित्यिक योगदान
मुक्ताबाई ने अत्यंत भावपूर्ण और गहन अनुभवों से युक्त अभंग और गाथाएं रचीं। उनकी रचनाएँ कम संख्या में उपलब्ध हैं, लेकिन उनमें जो भावनात्मक और आध्यात्मिक ऊर्जा है, वह अद्वितीय है। उनके अभंगों में आत्मा की पीड़ा, समाज के अन्याय के प्रति प्रतिकार, और भगवत्प्रेम की दिव्यता स्पष्ट होती है।
उनका प्रसिद्ध अभंग है:
“तीर्थ विठोबा, रुखमाई पंढरी,
ज्ञानोबा माऊली, मुक्ताई दोहरी।”
जिसमें वे स्वयं को विठोबा और ज्ञानेश्वर की सेवा में समर्पित करती हैं।
विचार और दर्शन
मुक्ताबाई का चिंतन अद्भुत था। उन्होंने कहा कि “दुख दूसरों का समझना ही सच्ची भक्ति है।”
उन्होंने जीवन की विषमताओं को एक साधिका के रूप में स्वीकार किया और उनमें से दिव्यता को खोजा। उन्होंने कहा कि केवल ग्रंथ पढ़ना ही ज्ञान नहीं है, जब तक वह जीवन में उतर कर व्यवहार में न आए।
उनका एक प्रसिद्ध कथन है:
“मुक्ताई म्हणे आकाशासी ठावं कसा,
तैसा ब्रह्मज्ञानाचा अनुभव कसा?”
(मुक्ताबाई कहती हैं, जैसे आकाश को छूना कठिन है, वैसे ही ब्रह्मज्ञान का अनुभव भी कठिन है।)
मुक्ताबाई का आत्मिक संदेश
मुक्ताबाई न केवल भक्ति की मूर्त थीं, बल्कि उन्होंने अपने जीवन से यह भी दिखाया कि आध्यात्मिकता केवल पुरूषों की बपौती नहीं है। वे भारतीय संत परंपरा में उन कुछ महिलाओं में थीं जिन्होंने आत्मज्ञान, निर्भीकता और सामाजिक चेतना के साथ अपने विचारों को व्यक्त किया।
अंतिम समय
मुक्ताबाई का जीवन अल्पकालिक था। माना जाता है कि वे किशोरावस्था में ही समाधिस्थ हो गईं। किंतु इतने कम समय में भी उन्होंने भारतीय संत परंपरा को अमूल्य योगदान दिया।
निष्कर्ष
संत मुक्ताबाई का जीवन हमें यह सिखाता है कि भक्ति और ज्ञान के पथ पर चलने के लिए न उम्र की सीमा होती है, न लिंग की। उन्होंने अपने जीवन, काव्य और ज्ञान से यह सिद्ध कर दिया कि आत्मा की पुकार ही सच्चे संतत्व की पहचान है। उनका स्मरण आज भी महाराष्ट्र और समूचे भारत में एक आदर्श की तरह किया जाता है।
🙏 जय मुक्ताई! 🙏
यदि आप चाहें तो मैं मुक्ताबाई के प्रमुख अभंगों का भावार्थ या संत ज्ञानेश्वर व मुक्ताबाई के संवादों पर भी लेख दे सकता हूँ।