
श्री परमहंस सतगुरु जी के अनंत गुण
‘सतगुरु’ शब्द पूर्ण गुरु के लिए प्रयोग किया जाता है, उन संतों-महापुरुषों के लिए के लिए किया जाता है जो जीव को शिष्य रूप में स्वीकार करके परमात्मा के भक्ति-पथ का मार्ग दर्शाते हैं. सतगुरु अपने शिष्य को आत्म-निरिक्षण द्वारा परमात्मा के दर्शन कराते हैं. सतगुरु में वो सभी गुण होते हैं जो परमात्मा में होते हैं क्योंकि वे परमात्मा का साकार रूप होते हैं. परमात्मा हर जीव के कर्मों का फल बिल्कुल वैसा देते हैं जैसा उसका कर्म होता है. इन कर्मों के फल को हम ‘कुदरत’ के नाम से जानते हैं. लेकिन सतगुरु रूप में वे अपनी पवित्र रूह को अपनी किरपा बख्शकर उसे नाम-अभ्यास द्वारा अपनी गलती को सुधारने का मौका देते हैं.
एक और जगह सतगुरु की महिमा (Guru Mahima) का ब्यान इस प्रकार से किया है –
Guru Brahma Guru Vishnu Shlok
गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर: l
गुरु साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम: ll
अर्थात सतगुरु ही भगवान ब्रह्मा हैं, सतगुरु ही भगवान विष्णु हैं, और भगवान शिव हैं, वे साक्षात पारब्रह्म हैं, ऐसे सतगुरु को मैं प्रणाम करता हूँ!
दर्श्नात स्पर्शनात शब्दात कृपया शिष्य देह के l
जनयेद्य: समावेशं शांभवं स हि देशिक: ll
अर्थात सच्चा गुरु वही है जो दृष्टि, दर्शन, स्पर्श, संकल्प, शब्द तथा भाव से शिष्य पर किरपा करते हुए यह ज्ञान करा दे कि वह ईश्वर का ही अंश है और उसी अनंत सिंधु का एक बिंदु है. उनके कार्यों को, उनकी किरपा को समझ पाना कठिन ही नहीं, असंभव होता है क्योंकि –
एह वड्ड ऊँचा होय जो कोई, तिस ऊँचे को जाने सोई l
कोई इतना ऊँचा हो तो उस ऊँचे को जान पाए न.
- सतगुरु का हर कार्य अपने शिष्य का कल्याण करना होता है, वे अपने शिष्य के दुःख अपने ऊपर लेकर भी उसके पहाड़ जैसे बड़े दुखों को राई में बदल देते हैं.
- सतगुरु की हर अदा परम पवित्र होती है. मनमोहिनी सूरत, प्रेम से भरी मधुर वाणी, पवित्र मुस्कान से हर जीव की सुध-बुध खो जाती है.
- पूर्ण महापुरुष अपने सभी भक्तों-प्रेमियों के अंग-संग रहते हैं.
- सतगुरु के दर्शन मात्र से परमात्मा के दर्शनों की इच्छा समाप्त हो जाती है. उनके दर्शनों से हमारे ह्रदय में प्रेम प्रकट होता है और हमारा मन ठहर जाता है.
- सतगुरु प्रेम की साकार मूरत होते हैं.
- “हरि किरपा कर जन्म दियो, जग मात-पिता द्वारे l उनसे अधिक गुरु जी हैं, भवनिधि से तारे ll” श्री गुरुमहाराज जी सतगुरु रूप में किरपा निधान हैं, करुणा अवतार हैं. जहाँ परमात्मा जीवों को उसके कर्मों का फल बिल्कुल उसके कर्मों के अनुसार देते हैं, वहाँ सतगुरु अपनी किरपा द्वारा पाप कर्मों के पहाड़ को राई बना कर शब्द-अभ्यास की कमाई द्वारा उसे कर्मों के बंधनों से मुक्त कर देते हैं. परमात्मा के सिवा जीव पर कोई और किरपा नहीं कर सकता. वे स्वयं ही करुणाअवतार लेकर किरपा बरसाते हैं.
- “पिता से माता सौ गुना करती सुत से प्यार l माता से हरि सौ गुना, हरि से गुरु सौ बार ll” इस सत्य को प्रत्येक गुरुमुख स्वीकार करता है कि सतगुरु उसे उसके माता-पिता और भगवान से भी लाख गुना अधिक प्रेम करते हैं.
- “वन्दौं चरण सरोज रज मुद मंगल आगार, जेहि सेवत नर होत हैं भवसागर से पार l गुरु जी के सुमिरन मात्र से नाश्त विघ्न अनंत, तासे सर्व आरम्भ में ध्यावत हैं सब संत ll” सभी संत-महापुरुष, ब्रह्मा-विष्णु-महेश, देवतागण कोई भी शुभ कार्य शुरू करने से पहले सत्ग्गुरु की पूजा करते हैं.
- श्री गुरुमहाराज जी अपने पावन वचनों द्वारा हमारे मन की कालिक मिटाकर मानव मात्र के प्रति प्रेम भरते हैं.
- जीवन में जब कोई कठिनाई आ जाती है और मन अशांत हो जाता है तो श्री गुरुमहाराज जी की किरपा से उनकी पावन श्री लीलाएँ सुनकर या सिमरन करके या कोई सत्संग की पंक्तियाँ सुनकर हमारा मन शांत होता है.
- जब हम सभी श्री दर्शनों पर जाते हैं तो श्री गुरुमहाराज जी सभी जीवों को उसकी रूह से पहचानते हैं, न कि शारीरिक सुंदरता से. तभी तो किसी को अच्छे दर्शन होते हैं, किसी को नहीं, किसी से श्री गुरुमहाराज जी बात करते हैं और किसी से नहीं. “घट घट के अंतर की जानत, भले बुरे की पीर पछानत l”
- श्री गुरुमहाराज जी सभी पर नाम-दीक्षा की बख्शिश करते हैं और जिसको भी बख्शिश करते हैं यदि वह पूरे नियमों द्वारा इसका अभ्यास करता है तो वह परम आनंद को प्राप्त करता है.
- गुरुवाणी में पूर्ण सतगुरु की महिमा का बखान करते हैं – “कहु नानक जिस सतगुरु पूरा, वाजे ता कै अनहद तूरा l” अर्थात पूरा और सच्चे गुरु की पहचान यही है कि वे हमारी आत्मा को अनहद शब्द के साथ जोड़ दें, जीव अपने अंदर बज रही अनहद को सुन सके. हमारे श्री दरबार में बहुत से ऐसे प्रेमी हैं जो श्री गुरुमहाराज जी की किरपा द्वारा इस अवस्था तक पहुँच चुके हैं.
- श्री गुरुमहाराज जी फरमाते हैं – “जब भी कोई परेशानी आए तो Om Shri Paramhansay Namah सिमरन कर लेना, सब ठीक हो जाएगा.” इस बात का गूढ़ रहस्य क्या है? इसका अर्थ है कि “नाम और नामी में भेद नहीं है”.
- आत्मा का अहसास और आत्मा के दर्शन सतगुरु के सिवा जीव को कोई और नहीं करवा सकता.
- सतगुरु ही आनंद हैं, आनंद ही प्रेम है, प्रेम ही परमात्मा है.
- सतगुरु से प्रेम मिलता है, सतगुरु का प्रेम पाकर मानव मात्र के लिए प्रेम बढ़ता है, ह्रदय में नम्रता आती है, सहनशीलता बढ़ती है, दृढसंकल्प, सत्य बोलने का साहस, अपने जीवन के महानतम लक्ष्य का बोध होता है, कर्मों के बंधन कटते हैं, मन स्थिर होता है, पवित्रता आती है, विकारों से मुक्ति मिलती है, बुद्धि का उचित प्रयोग करना सीखते हैं, अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है, आत्म-निरिक्षण होता है, अद्वैत का भाव मन में प्रकट होता है, आत्मा का अहसास होता है और इस संसार से आवागमन छूटता है.